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Ahmed Faraz Poetry: फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना
Ahmed Faraz Poetry
ग़ज़ल
जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना
ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाज़मी है तेरे पैरहन का जल जाना
तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक़्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना
अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना
सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिख़ों ने मकाबिर को भी महल जाना
ये क्या कि तू भी इसी साअते-ज़वाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना
हर इक इश्क़ के बाद और उसके इश्क़ के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना